aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "सुकून-ए-हवा"
हैं ये ख़ुश-फ़हमियाँ 'सुकून' अपनीउस ने सब कुछ भुला दिया होगा
शब-ए-ग़म की हज़ीं तन्हाइयों मेंसुकून-ए-दिल कोई लाए कहाँ से
ज़र-ओ-सीम शोहरत-ओ-मर्तबा मुझे इस जहाँ में मिला न क्यामगर एक शय थी सुकून-ए-दिल जो मैं ज़िंदगी में न पा सका
शाम के साये गहरे हो रहे थे और गौतमा अभी तक नहीं आई थी। रेस्तोरान, जिसकी बालकोनी में बैठा मैं उसका इंतज़ार कर रहा था, शहर के बड़े बाग़ के पिछवाड़े वाक़े था और किसी पुरानी ख़ानक़ाह के मानिंद चीड़, यूक्लिप्टस और मोलसिरी के दराज़ क़द दरख़्तों में घिरा हुआ...
सुकून-ए-हवाسکون ہوا
peace of breeze
राजदा ने कहा था मेरे मुतअल्लिक़ अफ़साना मत लिखना। मैं बदनाम हो जाऊँगी। इस बात को आज तीसरा साल है और मैंने राजदा के बारे में कुछ नहीं लिखा और न ही कभी लिखूँगा। अगरचे वो ज़माना जो मैंने उसकी मोहब्बत में बसर किया, मेरी ज़िंदगी का सुनहरी ज़माना था...
रोज़-ए-अज़ल वो दर्द-ए-मुसलसल अता हुआदिल को सुकून मिल न सका उम्र भर कहीं
बला-ए-नागहानी है हवा-ए-ज़ौजा-सानीजो बीवी जीत कर उट्ठे वज़ारत हार बैठे हैं
हमने देखा है कि लोग अंधा-धुंद जिस दिन जो काम चाहें शुरू करदेते हैं। यह जंत्री सबके पास हो तो ज़िंदगी में इंज़िबात आ जाए। हफ़्ते का दिन आया और सभी लोग सूटकेस उठा कर सफ़र पर निकल गए। जो न जा सके वह बच्चों को स्कूल में दाख़िल कराने...
जब कोई चीज़ नायाब या महंगी हो जाती है तो उसका बदल निकल ही आता है जैसे भैंस का ने’अम-उल-बदल मूंगफली। आपको तो घी से मतलब है। कहीं से भी आए। अब वो मरहला आ गया है कि हमारे हाँ बकरे और दुंबे की सनअ'त भी क़ाएम हो। आप बाज़ार...
पुराने ज़माने में इक़तिसादी मुशीर न होने के बावजूद शायद इसी वजह से कोई इक़तिसादी ख़लल वाक़े नहीं होता था, लेकिन इस बात की हम तारीफ़ नहीं कर सकते क्योंकि अटकल पच्चू चीज़ अटकल पच्चू चीज़ होती है। लोग तो हिक्मत और होम्योपैथी की दवाओं से भी ठीक हो जाते...
सच ये है कि काहिली में जो मज़ा है वो काहिल ही जानते हैं। भाग दौड़ करने वाले और सुबह सुबह उठने वाले और वरज़िश पसंद इस मज़े को क्या जानें। हाय कमबख़्त तूने पी ही नहीं। देखिए हमारे क़बीले में कैसा कैसा आदमी हुआ है। ग़ालिब भी “बैठे रहें...
पिछले दिनों एक किताब छपी है, “चलते हो तो चीन को चलिए।” उसके फ़ाज़िल मुसन्निफ़ का क्या उम्दा क़ौल है कि इंसान की सही क़दर उसके वतन से बाहर ही होती है जहां उसकी असलीयत जानने वाला कोई नहीं होता। सफ़र वसीला-ए-ज़फ़र का मतलब भी शायद यही है। उन साहिब...
हमने अपनी जेब को टटोला और कहा, “सौ रुपये से कम की चीज़ चाहिए।” बोले, “फिर आप मुर्ग़ की क़ुर्बानी दीजिए, चौपाया न ढूंडीए।” उससे कुछ आगे एक काला बकरा नज़र आया। काला होने की वजह से नज़र भी आ गया। हमने उस पर हाथ फेरा लेकिन इतने में हवा...
बिगड़ी हुई है मय-कदा-ए-दहर की हवाहो जाएँ शैख़-जी भी न मय-ख़्वार आज-कल
Devoted to the preservation & promotion of Urdu
A Trilingual Treasure of Urdu Words
Online Treasure of Sufi and Sant Poetry
World of Hindi language and literature
The best way to learn Urdu online
Best of Urdu & Hindi Books