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ग़ज़ल
अब तो हाथ सुझाई न देवे लेकिन अब से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
तू ने ही बताई हमें हर ख़्वाब की ताबीर
तूने ही सुझाई ग़म-ए-दिल-गीर की तस्ख़ीर
नून मीम राशिद
नज़्म
आख़िरी लम्हा
कौन है ये भी सुझाई नहीं देता मुझ को
सिर्फ़ सन्नाटे की आवाज़ चली आती है