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नज़्म
जुदाई
सुहाग रात की वो चूड़ियाँ बढ़ाई हुई
ये मेरी पहली मोहब्बत न थी मगर ऐ दोस्त
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
शाम-ए-अयादत
मुझे जगा रहा है मौत की ग़ुनूदगी से कौन
निगाहों में सुहाग-रात का समाँ लिए हुए