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ग़ज़ल
मिरी सरिश्त-ए-'सुख़न' में हैं कुछ नए उस्लूब
नई ग़ज़ल ने मुझे भी ख़ुश-आमदीद कहा
अब्दुल वहाब सुख़न
नज़्म
उठो नौजवानो
मोहब्बत को भी हर्फ़-ए-आख़िर न समझो
मोहब्बत से आगे भी सोज़-ए-सुख़न है
अबुल फ़ितरत मीर ज़ैदी
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ग़ज़ल
वो जो हैं लज़्ज़त-ए-तफ़्हीम-ए-सुख़न से वाक़िफ़
शे'र सुनते हैं वही लोग मुकर्रर मुझ से
अब्दुल वहाब सुख़न
नज़्म
फ़ितरत-ए-दुश्मन
यक़ीनन इंक़लाब-ए-हिन्द होगा ऐ 'सुख़न' होगा
हमें ज़ेबा है अपने घर में झंडा सुर्ख़ लहराना
टीका राम सुख़न
नज़्म
ईश्वर प्रार्थना
हर तरफ़ हो जज़्बा-ए-हुब्ब-ए-वतन शो'ला-फ़िशाँ
गुलख़न-ए-सोज़ाँ नज़र आए यहाँ का हर जवाँ
टीका राम सुख़न
ग़ज़ल
नहीं ये अब्र-ओ-बाराँ 'सोज़' के अहवाल को सुन कर
फ़लक की भी मोहब्बत से ये अब छाती भर आई है