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ग़ज़ल
हद-ए-इमकान ख़लाओं से परे माँगता है
लफ़्ज़ वो अपने ख़यालों से बड़े माँगता है
मोहम्मद नईम जावेद नईम
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नज़्म
वक़्त इक महबूब है
हद-ए-इमकान से बाहर निकलता है
मकाँ से ला-मकाँ तक जिस क़दर वुसअ'त मयस्सर है
सलमान बासित
ग़ज़ल
पाँव शल हो गए लेकिन न पता तेरा मिला
जुस्तुजू में तिरी मैं ता-हद-ए-इम्कान गया