aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "हम-सफ़र"
अब्दुल हक़ सहर मुज़फ़्फ़रनगरी
शायर
अब कौन ये समझेगा 'सफ़र' बर-सर-ए-मक़्तलहम लर्ज़ा-बर-अंदाम हैं या झूम रहे हैं
वक़्त की धूप तेज़ होती हैहम-सफ़र हो तो राह कट जाए
न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगाहमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थीकि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
مجھے مت جانے دو ،روک لو مجھے، میں نے کیا بگاڑا ہے تمہارا ، گر۔۔۔اگر میں چلی گئی تو تم لوگوں کا ساتھ کون دے گا؟ تمہاری اصلاح کون کرے گا؟ تمہیں شرمندگی سے کون بچائے گا؟کتنی بے دردی سے تم لوگ مجھے ۔۔۔روک لو ۔۔۔ر۔۔۔ک۔۔۔لو دیکھو ایسا نہ کرو...
सफ़र दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बिखरी ज़िन्दगी को समझने का वसीला है और ज़िन्दगी की रवानी का इस्तिआरा भी। शायरों ने सफ़र की मुश्किलों और इस से हासिल होने वाली ख़ुशियों का अलग-अलग ढंग से इज़हार किया है। यह शायरी ज़िन्दगी के मुश्किल लम्हों में हौसले का ज़रिया भी हैं। आइये निकलते है सफ़र शायरी के दिलचस्प सफ़र पर रेख़्ता के साथ।
हिज्र मुहब्बत के सफ़र का वो मोड़ है, जहाँ आशिक़ को एक दर्द एक अथाह समंदर की तरह लगता है | शायर इस दर्द को और ज़ियादः महसूस करते हैं और जब ये दर्द हद से ज़ियादा बढ़ जाता है, तो वह अपनी तख्लीक़ के ज़रिए इसे समेटने की कोशिश करता है | यहाँ दी जाने वाली पाँच नज़्में उसी दर्द की परछाईं है |
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हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहींइक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे
شام نے اپنے گیسو پھیلا دئیے تھے۔ سورج آہستہ آہستہ روپوش ہو رہا تھا اور ہر آدمی جلدی جلدی اپنے گھر پہنچنے کے لئے بس اسٹاپ کی طرف بھاگ رہا تھا۔ میں بھی اپنے دفتر سے نکل کر بس اسٹاپ پر آ گیا اور ایک بینچ پر بیٹھ کر بس...
(1)मंज़ूर यही जब मुझे ऐ जान-ए-जहाँ है
हम-सफ़र वो जो हम-सफ़र ही न थाऔर फिर कर लीं दूरियाँ मैं ने
सग-ए-हम-सफ़र और मैं
हम-सफ़र रह गए बहुत पीछेआओ कुछ देर को ठहर जाएँ
हम-सफ़र हो तो कोई अपना-साचाँद के साथ चलोगे कब तक
मैं बनाता तुझे हम-सफ़र ज़िंदगीकाश आती कभी मेरे घर ज़िंदगी
कोई भी हम-सफ़र नहीं होतादर्द क्यूँ रात भर नहीं होता
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