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हास्य
मुतमइन हो कोई क्यूँ-कर कि ये हैं नेक-निहाद
है हनूज़ उन की रगों में असर-ए-हुक्म-ए-जिहाद
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
तामील-ए-हुक्म-ए-रब में हैं मसरूफ़ रात-दिन
इस वास्ते ये शम्स-ओ-क़मर बोलते नहीं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
एक पत्ता भी नहीं हिलता ब-जुज़ हुक्म-ए-ख़ुदा
किस तरह आबाद कर लें अपने वीराने को हम
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
समस्त
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ग़ज़ल
ये दावत-ए-जिहाद बे-महल नहीं है ऐ ज़मीं
किसी फ़क़ीर बे-हुनर का आख़िरी बयान है