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नज़्म
हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं
मबादा हो कोई ज़ालिम तिरा गरेबाँ-गीर
लहू के दाग़ तू दामन से धो, हुआ सो हुआ''
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
रेत भरी है इन आँखों में आँसू से तुम धो लेना
कोई सूखा पेड़ मिले तो उस से लिपट के रो लेना
बशीर बद्र
शेर
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है
दिवाकर राही
क़ितआ
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तुम्हारे हुस्न के नाम
चमन में सर्व-ओ-सनोबर सँवर गए हैं तमाम
बनी बिसात-ए-ग़ज़ल जब डुबो लिए दिल ने