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नज़्म
रूह देखी है कभी!
ढेर से साए पकड़ने के लिए भागते हैं
तुम ने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लग कर
गुलज़ार
ग़ज़ल
ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
क़ितआ
इस के ब'अद कई साए से उस को रुख़्सत करते हैं
फिर दीवारें ढे जाती हैं दरवाज़ा गिर जाता है