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ग़ज़ल
जितना दिखता हूँ मुझे उस से ज़ियादा न समझ
इस ज़मीं का हूँ मुझे कोई फ़रिश्ता न समझ
द्विजेंद्र द्विज
ग़ज़ल
भुला रही है तुझे धूप 'द्विज' पहाड़ों की
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी
द्विजेंद्र द्विज
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ग़ज़ल
झुकाए सर जो खड़े हैं ख़िलाफ़ ज़ुल्मों के
लगा है ऐसा 'द्विज' बे-ज़बाँ हैं सब के सब