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नज़्म
बन-बास
मुझ को ये फ़ख़्र कि मैं हक़्क़-ओ-सदाक़त का अमीं
मुझ को ये ज़ोम ख़ुद-आगाह हूँ ख़ुद्दार हूँ मैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
नज़्म
एक तराना मुजाहिदीन-ए-फ़िलिस्तीन के लिए
क़द जाअल-हक़्क़ो व ज़हक़ल-बातिल
फ़र्मूदा-ए-रब्ब-ए-अकबर
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हास्य
मक़्तूल क्या बताए है कौन उस का क़ातिल
कब जाने ख़त्म होगी ये जंग-ए-हक़-ओ-बातिल
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
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ग़ज़ल
फ़लक पर जाए 'ईसा है गया ज़ेर-ए-ज़मीं क़ारूँ
ज़मीन-ओ-आसमाँ का फ़र्क़ पाया हक़्क़-ओ-बातिल में
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
ज़माने पर किसे मालूम कैसा बार गुज़रा है
मिरा हक़्क़-ओ-सदाक़त पर मदार-ए-गुफ़्तुगू रखना
आतिश बहावलपुरी
ग़ज़ल
अफ़राद पे भी अक़्वाम पे भी ये मुश्किल आती रहती है
हर दौर में हक़-ओ-बातिल की क़ुव्वत टकराती रहती है
सईद अहमद अख़्तर
शेर
उसी दुनिया के कुछ नक़्श-ओ-निगार अशआ'र हैं मेरे
जो पैदा हो रही है हक़्क़-ओ-बातिल के तसादुम से
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ख़त-ए-साग़र में राज़-ए-हक़-ओ-बातिल देखने वाले
अभी कुछ लोग हैं साक़ी की महफ़िल देखने वाले
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
मिरा तर्ज़-ए-सुलूक इस राह के रह-रौ न समझेंगे
मगर जो राहबर राह-ए-हक़-ओ-बातिल समझते हैं