aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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मलिक चननुद्दीन कके ज़ई
संपादक
सेन्ट्रल कक्के ज़ई एसोसिएशन, लाहौर
पर्काशक
मलिक फ़ज़लुद्दीन कक्के ज़ई
अनुवादक
अब के बहार ने भी कीं ऐसी शरारतें कि बसकब्क-ए-दरी की चाल में तेरा ख़िराम रख दिया
शर्मिंदा तिरे रुख़ से है रुख़्सार परी काचलता नहीं कुछ आगे तिरे कब्क-ए-दरी का
चाय के साथ ग़ीबत के केकज़रूरी होते हैं
लाओ इस बात पे केक खिलाओरात के खाने में क्या है
वो मोर वो कब्क-ए-दरीवो चौकड़ी भरते हिरन
Quba-e-Saz
मुस्तफ़ा ज़ैदी
Shumara Number-009
अननोन एडिटर
Apr 1900कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Shumara Number-011
Jun 1902कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Cake Aur Sharab
विलियम साम्राट माम
Quba-e-Noor
शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी
Coke Studio Pakistan Seasons-2-10
महिलाओं की रचनाएँ
Shumara Number-001
Aug 1906कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Shumara Number-004
Nov 1903कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Shumara Number-008
कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Apr 1907कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Shumara Number-002
Sep 1903कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Mar 1906कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Shumaara No-006
Jan 1903कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
001
Aug 1900कक्के ज़ई सोशल रिफॉर्मर
Shumara Nmber-001
आमों की हसीं रुत के सिवा भी तो वो कूकेलेकिन किसी कोयल का ये किरदार ही कब था
पहुँचे होटल में तो फिर ईद की पर्वा न रहीकेक को चख के सेवइयों का मज़ा भूल गए
बैकरी में नौकरी करनी पड़ीवो सिवाए केक कुछ खाता नहीं
बाँट डाले ऐसे हम ने दिल के टुकड़े काट करजन्म-दिन पे बाँटते हैं केक जैसे काट कर
धरती जल-थल पंछी घाएलबोले पपीहा कूके कोयल
तिरी तक़लीद से कब्क-ए-दरी ने ठोकरें खाईंचला जब जानवर इंसाँ की चाल उस का चलन बिगड़ा
मैं ने कहा कि कुत्ते के खाने का केक हैबोला यहीं पे खाओगे या ले के जाओगे
अभी बुझाओ न कैंडल न केक काटो अभीकुछ और देर मिरा पिछ्ला साल मत छीनो
मतला ग़ज़ल का ग़ैर ज़रूरी क्या क्यूँ कब का हिस्सा हैज़िंदगी चाकलेट केक है थोड़ा थोड़ा सब का हिस्सा है
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