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नज़्म
मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
तारीख़ जानती है ज़माना गवाह है
कुछ कोर-बातिनों की नज़र तंग ही सही
साहिर लुधियानवी
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नज़्म
ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़रज़ंदों से ख़िताब
अहल-ए-हक़ रोशन-नज़र हैं अहल-ए-बातिन कोर हैं
ये तो हैं अक़वाल उन क़ौमों के जो कमज़ोर हैं
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
जो चश्म कि बे-नम हो वो हो कोर तो बेहतर
जो दिल कि हो बे-दाग़ वो जल जाए तो अच्छा