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ग़ज़ल
'बासिर' की शख़्सियत भी अजब है कि इस में हैं
कुछ ख़ूबियाँ ख़राब कुछ अच्छी ख़राबियाँ
बासिर सुल्तान काज़मी
नज़्म
जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आब-ए-हयात
दुनिया के दाना और हकीम इस ख़ौफ़ से लर्ज़ां थे सब
तुम पर मुबादा इल्म की पड़ जाए परछाईं कहीं
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
गुनाह-ए-इश्क़ में इस बात की तस्कीन होती है
हुआ हो जुर्म गहरा तो सज़ा संगीन होती है