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ग़ज़ल
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मैं वो मजनूँ हूँ जो निकलूँ कुंज-ए-ज़िंदाँ छोड़ कर
सेब-ए-जन्नत तक न खाऊँ संग-ए-तिफ़्लाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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ग़ज़ल
ज़वाल हुस्न खिलवाता है मेवे की क़सम मुझ से
लगाया दाग़ ख़त ने आन कर सेब-ए-ज़क़न बिगड़ा
हैदर अली आतिश
शेर
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
लिया था ख़्वाब में बोसा जो यक शब सेब-ए-ग़बग़ब का
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सीने पे कहा मैं ने ये दो सेब हैं क्या हैं
शर्मा के ये चुपके से कहा और ही कुछ है