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नज़्म
बरसात की बहारें
मैले कुचैले कपड़े आँखें भी डबडबाई
ने घर में झूला डाला ने ओढ़नी रंगाई
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जुदाई
उभर गई हैं वो चोटें दबी-दबाई हुई
सुपुर्दगी ओ ख़ुलूस-ए-निहाँ के पर्दे में
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
लबों पर मोहर-ए-ख़ामोशी है आँखें डबडबाई हैं
असर-अंदाज़ अपनी बे-ज़बानी ले के आया हूँ
जलील मानिकपूरी
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कुल्लियात
क्या आज डबडबाई देखो हो तुम ये आँखें
जूँ चश्मा यूँही बरसों हम चश्म-ए-तर रहे हैं