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ग़ज़ल
हफ़ीज़ुल्लाह ख़ान बद्र
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शेर
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए
हफ़ीज़ होशियारपुरी
ग़ज़ल
ग़म-ए-मोहब्बत सता रहा है ग़म-ए-ज़माना मसल रहा है
मगर मिरे दिन गुज़र रहे हैं मगर मिरा वक़्त टल रहा है
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
किसी के भूल जाने से मोहब्बत कम नहीं होती
मोहब्बत ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती