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ग़ज़ल
हुई काशिफ़-ए-हक़ीक़त ये ज़मीर-ए-मय-कदा की
मिरी बे-ख़ुदी जो दुर्द-ए-तह-ए-जाम बन के आई
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
मिरे शहर-ए-जान-ओ-दिल में वो ज़िया बिखेरते हैं
मिरा क़ल्ब है मुजल्ला यहाँ तीरगी नहीं है
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
ठहर जा हाँ ठहर जा जाने वाले इस को सुनता जा
ब-हाल-नज़्अ' तेरा नीम-जाँ कुछ और कहता है
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
हम बगूले की तरह दश्त में फिरते हैं 'ग़ुबार'
जोश-ए-वहशत ने कुछ ऐसा हमें आज़ाद किया