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ग़ज़ल
इस आशोब-ए-ज़माना के लिए मैं क्या कहूँ 'तैमूर'
कि हर बिखरा हुआ ख़ुद को यहाँ सिमटा दिखाता है
तैमूर हसन
ग़ज़ल
कैसे आशोब-ए-दानिश पे रखता नज़र मैं कम-आगाह था
दे गया मुझ को आँखों के बदले कोई बे-बसर आइने
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या
जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
आज भी हैं वो सुलगे सुलगे तेरे लब ओ आरिज़ की तरह
जिन ज़ख़्मों पर पंखा झलते एक ज़माना बीत गया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
बुलबुलों से नहीं गुलज़ार-ए-ज़माना ख़ाली
शुक्र है याँ भी हम-आवाज़ नज़र आते हैं