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नज़्म
फ़र्ज़ करो
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-तक़दीर ये है मोजज़ा-ए-दस्त-ए-अमल
जो ख़ज़फ़ मैं ने उठाया वो गुहर है कि नहीं
मजरूह सुल्तानपुरी
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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
शेर
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
दिल-आशोब
दिल हाथ से इस के वहशी हिरन की मिसाल गया
हम अहल-ए-वफ़ा रंजूर सही, मजबूर नहीं
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-ख़िरद तादीब की ख़ातिर पाथर ले ले आ पहुँचे
जब कभी हम ने शहर-ए-ग़ज़ल में दिल की बात बयाँ की है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
और बा-मा'नी हुआ तश्कीक का पिछ्ला निसाब
क्या कहूँ अहल-ए-यकीं ने क्या गुमाँ पर लिख दिया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
हम उन्हीं अहल-ए-वफ़ा के चाहने वालों में हैं
आसमाँ जिन के लिए सदियों लहू बरसाए है