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शेर
होश-ओ-बे-होशी की मंज़िल एक है रस्ते जुदा
ख़ुश्क-ओ-तर सारे जहाँ का लब-ब-लब साहिल में है
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
मज़ा बे-होशी-ए-उल्फ़त का होशयारों से मत पूछो
अज़ीज़ाँ ख़्वाब की लज़्ज़त को बे-दारों से मत पूछो
मीर हसन
ग़ज़ल
दार पर चढ़ कर लगाएँ नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम
सब हमें बाहोश समझें चाहे दीवाना कहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ऐ शैख़-ए-हरम ए'जाज़ है ये पुर-कैफ़ निगाह-ए-साक़ी का
बा-होश तो गिरते रहते हैं बेहोश सँभलते रहते हैं