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ग़ज़ल
गुल-ए-नौ-ख़ास्ता काँटों को हक़ारत से न देख
किस की तक़दीर में ख़्वारी है तुझे क्या मालूम
सिकंदर अली वज्द
ग़ज़ल
मू-कमरान-ए-बाग़-ए-हुस्न लचकें जो मिस्ल-ए-शाख़-ए-बेद
दिल को न क्यूँ हिलावें फिर उन की ये नौ-नहालियाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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नज़्म
ऐ निगार-ए-वतन
ख़िज़ाँ ने यूँ तो कई सब्ज़-बाग़ दिखलाए
बहार मुंतज़िर-ए-नौ-बहार है अब भी
अख़्तर पयामी
कुल्लियात
तेरा ही मुँह तके है क्या जानिए कि नौ-ख़त
क्या बाग़-ए-सब्ज़ तू ने आईने को दिखाया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
बहुत अज़ीज़ है मुझ को ये बर्ग-ए-नौ जिस में
ज़मीं का हुस्न भी है शोख़ी-ए-सबा भी है