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ग़ज़ल
ज़िंदगी के नर्म काँधों पर लिए फिरते हैं हम
ग़म का जो बार-ए-गिराँ इनआम ले कर आए हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
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ग़ज़ल
सुबुक-सरी के लिए तुम ने क्या किया 'राशिद'
फ़लक से शिकवा-ए-बार-ए-गिराँ तो होता रहा
राशिद जमाल फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
तू भी हरे दरीचे वाली आ जा बर-सर-ए-बाम है चाँद
हर कोई जग में ख़ुद सा ढूँडे तुझ बिन बसे आराम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
कुल्लियात
मैं मुश्त-ए-ख़ाक या-रब बार-ए-गिरान-ए-ग़म था
क्या कहिए आ पड़ा है इक आसमाँ ज़मीं पर
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो
है दर-ए-दिल पे कोई संग-ए-गिराँ हम-नफ़सो
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा