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ग़ज़ल
'कँवल' ए'ज़ाज़ भी कहती है इस को जुर्म भी दुनिया
कि बदनाम-ए-ज़माना भी मोहब्बत मो'तबर भी है
कँवल मलिक
ग़ज़ल
तू ही तन्हा नहीं बदनाम-ए-ज़माना ऐ दोस्त
बेवफ़ा तेरी तरह नौ-ए-बशर है कि नहीं
मंसूरुद्दीन कुरैशी मंसूर
ग़ज़ल
मैं हूँ इक बदनाम-ए-ज़माना देखो मेरे साथ न आओ
हो जाओगे मुफ़्त में रुस्वा क्यों नादानी करते हो
ताबिश रिहान
ग़ज़ल
उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या
जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए