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ग़ज़ल
लाला-ए-गुल ने हमारी ख़ाक पर डाला है शोर
क्या क़यामत है मुओं को भी सताती है बहार
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
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नज़्म
बहार का आख़िरी फूल
ज़माने ने सुपुर्द-ए-ख़ाक तेरे कर दिए साथी
न उन की पत्तियाँ बाक़ी न उन में रंग-ओ-बू बाक़ी
नारायण दास पूरी
नज़्म
ये सर-ज़मीन-ए-वतन
ये सर-ज़मीन-ए-वतन आबरू-ए-आलम-ए-ख़ाक
ये सर-ज़मीन-ए-वतन गुलशन-ए-बहार-ए-हयात
रिफ़अत सरोश
नज़्म
ब-याद-ए-अख़्तर 'शीरानी'
बिसात-ए-ख़ाक को दे कर बहार-ए-लाला-ओ-गुल
चमन के सीने पे ज़ख़्म-ए-बहार छोड़ गया