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ग़ज़ल
'शौक़' सा बंदा-ए-आज़ाद ज़माने में कहाँ
आज सुनते हैं कि वो याद-ए-ख़ुदा करते हैं
पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़
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ग़ज़ल
ऐ 'आज़ाद' यही निकला सदियों की मसाफ़त का हासिल
एक उदासी के आलम का छा जाना गलियों गलियों
सुहैल आज़ाद
नज़्म
यूरोप की पहली झलक
जिस से ख़ीरा तेरी आँखें हैं चमक यूरोप की है
देख ऐ 'आज़ाद'! ये पहली झलक यूरोप की है
जगन्नाथ आज़ाद
नअत
बड़े छोटे में जिस ने इक उख़ुव्वत की बिना डाली
ज़माने से तमीज़-ए-बंदा-ओ-आक़ा मिटा डाली