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ग़ज़ल
मुज़्मर है बक़ा हस्ती-ए-आलम की फ़ना में
इक जल्वा-ए-वहदत भी है कसरत की फ़ज़ा में
महाराजा सर किशन परसाद शाद
ग़ज़ल
ऐ 'बक़ा'-ए-कारवाँ इस रेख़्ते की हर रदीफ़
गरचे है बे-कार पर बतला कहाँ बे-कार है
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
मुतरिब बचों ने शैख़ को टंगिया लिया तमाम
ली वक़्त-ए-जा-ए-ख़िलअ'त-ए-इनआ'म दोश पर
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
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ग़ज़ल
राह-पैमायान-ए-अक़्लीम-ए-अदम से यादगार
दामन-ए-सहरा में अब बाक़ी नुक़ूश-ए-जादा हैं
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
मैं तो आया था 'बक़ा' बाग़ में सुन जोश-ए-बहार
पर ये हंगाम-ए-ख़िज़ाँ था मुझे मालूम न था
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
पाँव रखता ही नहीं नाज़ से बाला-ए-ज़मीं
कफ़-ब-कफ़ बज़्म में साक़ी की रवाँ है शीशा
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
शेर
बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश
उँगलियाँ आप मोअज़्ज़िन ने धरीं कान के बीच
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
नालाँ हम अपने अश्क के हाथों थे अब 'बक़ा'
बहने लगें हैं लख़्त-ए-जिगर यक-न-शुद दो-शुद
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
दाम-ए-बला से अब 'बक़ा' हम से असीर कब छुटें
रिश्ता-ए-ग़म से गुथ गए बाल-ब-बाल पर-ब-पर