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ग़ज़ल
'मेहर' बे-लुत्फ़ है बज़्म-ए-शोअ'रा बे-मा'शूक़
बुलबुलें चहचहे में हैं कोई गुलफ़ाम नहीं
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
तुफ़ ब-मा'शूक़-मिज़ाजाँ सर-ए-हर-यार पे ख़ाक
ढल गए होश तो अब ख़ामा-ए-बेदार पे ख़ाक
अब्दुल्लाह साक़िब
शेर
ज़र्बुल-मसल है होते हैं माशूक़ बे-वफ़ा
ये कुछ तुम्हारा ज़िक्र नहीं है ख़फ़ा न हो
मिर्ज़ा हादी रुस्वा
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ग़ज़ल
मिरी नज़रों में बे-मफ़्हूम थी ये रौनक़-ए-दुनिया
मैं इस दुनिया को यादों के सहारे भूल बैठा था
मसूद तन्हा
ग़ज़ल
हुआ है तौर-ए-बर्बादी जो बे-दस्तूर पहलू में
दिल-ए-बेताब को रहता है ना-मंज़ूर पहलू में
आग़ा हज्जू शरफ़
कुल्लियात
गुल भी है माशूक़ लेकिन कब है उस महबूब सा
आगे उस क़द के है सर्व-ए-बाग़ बे-उस्लूब सा