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शेर
जब उन की पत्तियाँ बिखरीं तो समझे मस्लहत उस की
ये गुल पहले समझते थे हवा बे-कार चलती है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ब-फ़ैज़-ए-मस्लहत ऐसा भी होता है ज़माने में
कि रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ कहना ही पड़ता है