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नज़्म
बेदारी
जिस बंदा-ए-हक़-बीं की ख़ुदी हो गई बेदार
शमशीर की मानिंद है बुरिंदा-ओ-बुर्राक़
अल्लामा इक़बाल
कुल्लियात
आया सो आब-ए-तेग़ ही मुझ को चटा गया
था वो बुरिंदा ज़ख़्मों पे मैं ज़ख़्म खा गया
मीर तक़ी मीर
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नज़्म
किसान
सोचता जाता है किन आँखों से देखा जाएगा
बे-रिदा बीवी का सर बच्चों का मुँह उतरा हुआ
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
शर्म से दोहरा हो जाएगा कान पड़ा वो बुंदा भी
बाद-ए-सबा के लहजे में इक बात में ऐसी पूछूँगा