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ग़ज़ल
तवाफ़-ए-काबा-ओ-बुत-ख़ाना ला-हासिल समझते हैं
जो अपने दिल को हुस्न-ए-यार की मंज़िल समझते हैं
सय्यद वाजिद अली फ़र्रुख़ बनारसी
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ग़ज़ल
आज हैं का'बा-नशीं कल साकिन-ए-बुत-ख़ाना हम
अपने बेगाने से यकसाँ रखते हैं याराना हम
फ़हीम गोरखपुरी
ग़ज़ल
न मेहराब-ए-हरम समझे न जाने ताक़-ए-बुत-ख़ाना
जहाँ देखी तजल्ली हो गया क़ुर्बान परवाना
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम
इक बुत-ए-ना-आश्ना से दिल लगा बैठे हैं हम
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
रुख़ था का'बे की तरफ़ उठते न थे लेकिन क़दम
शौक़ जैसे खींचता हो सू-ए-बुत-ख़ाना मुझे
ज़ब्त सीतापुरी
ग़ज़ल
रह-ए-उल्फ़त में यूँ तो का'बा-ओ-बुत-ख़ाना आता है
जबीं झुकती है लेकिन जब दर-ए-जानाना आता है
मानी जायसी
शेर
तअस्सुब बर-तरफ़ मस्जिद हो या हो कू-ए-बुत-ख़ाना
रह-ए-दिलदार पर जाता क़दम यूँ भी है और यूँ भी