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नज़्म
गुरेज़
ये जा कर कोई बज़्म-ए-ख़ूबाँ में कह दो
कि अब दर-ख़ोर-ए-बज़्म-ए-ख़ूबाँ नहीं मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वक़्त की चीज़
दरख़ोर-ए-इल्तिफ़ात हों क्यों ये ज़लील हस्तियाँ
जिस की ख़ुदी पे छीन लीं क़ौम की ख़ुद-परस्तियाँ
अली मंज़ूर हैदराबादी
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ग़ज़ल
यहाँ तो ख़ुद तिरी हस्ती है इश्क़ को दरकार
वो और होंगे जिन्हें मुस्कुरा के लूट लिया
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
एक दरख़्वास्त
ज़िंदा रहने के लिए इंसान को कुछ और भी दरकार है
और इस कुछ और भी का तज़्किरा भी जुर्म है