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ग़ज़ल
'माहिर'-ए-बे-चारा पर कर के ये जौर-ओ-जफ़ा
फिर न ज़बाँ अपनी पर नाम-ए-वफ़ा लाइए
फ़ख़रुद्दीन ख़ाँ माहिर
ग़ज़ल
'आहन'-ए-बे-चारा-ओ-बेकस का पूछो हाल क्या
शाह-ए-इस्तिग़्ना है लेकिन तेरे दर का वो फ़क़ीर
अख़लाक़ अहमद आहन
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ग़ज़ल
तिरी रहमतों से है दूर कब मिरी चारा-साज़ी-ए-बे-कसी
किसी ग़म-नसीब की दहर में ये सदा से ख़ास पुकार है
बेबाक भोजपुरी
ग़ज़ल
हुस्न बे-चारा तो हो जाता है अक्सर मेहरबाँ
फिर उसे आमादा-ए-बे-दाद कर लेता हूँ मैं