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ग़ज़ल
यक क़दम वहशत से दर्स-ए-दफ़्तर-ए-इम्काँ खुला
जादा अजज़ा-ए-दो-आलम दश्त का शीराज़ा था
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
भगवान 'कृष्ण' की तस्वीर देख कर
तुझे मैं आज तक मसरूफ़-ए-दर्स-ओ-वा'ज़ पाता हूँ
तिरी हस्ती मुकम्मल आगही महसूस होती है
कँवल एम ए
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ग़ज़ल
क़तरों को रोज़ देते हैं ये दर्स-ए-इज्तिहाद
फिर कैसे मान लूँ कि गुहर बोलते नहीं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
अब मेरे इम्तिहान का सामाँ किया गया
यानी सुपुर्द-ए-आलम-ए-इम्काँ किया गया
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
हम को दर्स-ए-उल्फ़त-ओ-मेहर-ओ-वफ़ा देते हुए
ख़ुद को परखा आप ने ये मशवरा देते हुए