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शेर
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया था
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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शेर
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
इफ़्तार किया रोज़े में उस लब के रोतब से
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जो तू ऐ 'मुस्हफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
तो मेरी जान फिर क्यूँके कोई हम-साया सोवेगा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
ज़ालिम ग़ज़ब ही होती हैं ये दिल्ली वालियाँ