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ग़ज़ल
चेहरा-ए-रंगीं कोई दीवान-ए-रंगीं है मगर
हुस्न-ए-मतला हैं मसीं मतला है साफ़ अबरु-ए-दोस्त
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
रू-ए-रंगीं की हिकायत नज़्म अगर करने लगें
'बर्क़' सब दीवाँ हमारा बोस्ताँ हो जाएगा
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
हाल-ए-दिल कहने की सई-ए-राइगाँ में रह गए
उलझे कुछ अल्फ़ाज़ में हम कुछ बयाँ में रह गए
सरदार मोहन सिंह दीवान
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ग़ज़ल
नाला-ए-मौज़ूँ से मिस्रा आह का चस्पाँ हुआ
ज़ोर ये पुर-दर्द अपना मतल-ए-दीवाँ हुआ
जुरअत क़लंदर बख़्श
हास्य
कल एक नाक़िद-ए-'ग़ालिब' ने मुझ से ये पूछा
कि क़द्र-ए-'ग़ालिब'-ए-मरहूम का सबब क्या है
दिलावर फ़िगार
कुल्लियात
लोहू रोता हूँ मैं हर इक हर्फ़-ए-ख़त पर हम-दमाँ
और अब रंगीन जैसा तुम कहो इंशा करूँ