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नज़्म
अलविदा
यहाँ से दोस्ती की कितनी तामीरें उठाई हैं
रफ़ाक़त की हयात-अफ़रोज़ दुनियाएँ बसाई हैं
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
तीन मंज़र
छनती हुई नज़रों से जज़्बात की दुनियाएँ
बे-ख़्वाबियाँ अफ़्साने महताब तमन्नाएँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
सैकड़ों गुम-शुदा दुनियाएँ दिखा दीं उस ने
आ गया लुत्फ़ उसे लुक़्मा-ए-तर देने में
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
अब तो और भी दुनियाएँ हैं मुंतज़िर-ए-अरबाब-ए-हवस
उन लोगों का क़ौल नहीं है हम को ये दुनिया काफ़ी है
असलम अंसारी
ग़ज़ल
अपने सिवा अपने रिश्ते में और भी कुछ दुनियाएँ थीं
हम ने अपना हाल लिक्खा लेकिन दीगर अहवाल के बाद
ज़फ़र गोरखपुरी
नज़्म
ऐ रूह-ए-ज़िंदगी
कौन सी नई दुनियाएँ आबाद करने में मसरूफ़ हो गई है तू
इस हमारी दुनिया की जानिब भी पलट कर देख
मोहम्मद हनीफ़ रामे
ग़ज़ल
मेरा इक इक लम्हा कर्ब लिए फिरता है सदियों का
इक दुनिया के रस्ते में कितनी दुनियाएँ आती हैं




