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ग़ज़ल
करवटें लेने दो फ़र्श-ए-ख़ाक पर नख़चीर को
बे-धड़क हो कर निकालो तुम जिगर से तीर को
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
न फ़र्श-ए-ख़ाक पे ठहरेंगे नक़्श-ए-पा की तरह
रवाँ-दवाँ हैं फ़ज़ाओं में हम हवा की तरह
सय्यदा फ़रहत
ग़ज़ल
आले रज़ा रज़ा
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ग़ज़ल
किरन के हक़ में ये सूरज का फ़ैसला क्यूँ है
जो फ़र्श-ए-ख़ाक पुकारे तो दूर हट जाना
सय्यद अमीन अशरफ़
नज़्म
शा'इरी का जनाज़ा
इक जमूदी कैफ़ियत छाने लगी इदराक पर
'अर्श से गिरता हो जैसे कोई फ़र्श-ए-ख़ाक पर
बर्क़ आशियान्वी
ग़ज़ल
जो लूटते हैं मज़े फ़र्श-ए-गुल के बिस्तर पर
वो फ़र्श-ए-ख़ाक पे सोएँगे इस जहान के बा'द
एम. नसरुल्लाह नसर
ग़ज़ल
ऐसी ही कुछ कशिश है जो हूँ फ़र्श-ए-ख़ाक पर
वर्ना बुलंदियों से भी ऊँचा गया हूँ मैं
आदिल असीर देहलवी
ग़ज़ल
बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे
फेंक के फ़र्श-ए-ख़ाक पर भूल गया ख़ुदा मुझे
शहज़ाद अहमद
शेर
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू
आख़िरी बिस्तर भी 'आमिर' तेरा फ़र्श-ए-ख़ाक था