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ग़ज़ल
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
वगर्ना बा'द-ए-फ़ना मुश्त-ए-ख़ाक राह में है
जोर्ज पेश शोर
शेर
गदा-ए-शाह-ए-नजफ़ हूँ सो मेरे कासे से
जहाँ को चर्ख़-ए-सुख़न के सभी पते मिलेंगे
मुज़म्मिल अब्बास शजर
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नअत
निगाह-ए-‘अद्ल में जिस की गदा-ओ-शाह यकसाँ थे
हिमायत जिस ने की मज़लूम की ज़ालिम को मारा है
महवी सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
तिरे दर पर गदा-ओ-शह के ग़श खा खा के गिरने से
दिल-ओ-जाँ बहते फिरते हैं सर-ओ-अफ़सर बरसते हैं