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कुल्लियात
गेसू-ए-मुश्क-बू को उसे ज़िद है खोलना
फिर ज़ख़्म दिल-फ़िगारों का नासूर क्यों न हो
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
शाद लखनवी
ग़ज़ल
कुछ उस ख़ुशबू की हद भी है मोअत्तर हो गया बिल्कुल
मिरे हाथों में वस्फ़-ए-गेसू-ए-शबगीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मस्त हो कर उस की ख़ुशबू से गिरा था बच गया
जब सँभलने को वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-सा पकड़ी गई