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ग़ज़ल
नहीं मालूम कि मातम है फ़लक पर किस का
रोज़ क्यूँ चाक गिरेबान-ए-सहर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबाँ होना
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
हम लोग
और उलझी हुई मौहूम सी दरबाँ की तलाश
दश्त ओ ज़िंदाँ की हवस चाक-ए-गिरेबाँ की तलाश
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
कभी गिरेबाँ चाक हुआ और कभी हुआ दिल ख़ून
हमें तो यूँही मिले सुख़न के सिले सड़क के बीच
हबीब जालिब
नज़्म
एक शहर-आशोब का आग़ाज़
याँ अहल-ए-जुनूँ यक-ब-दिगर दस्त-ओ-गिरेबाँ
वाँ जैश-ए-हवस तेग़-ब-कफ़ दरपा-ए-जाँ है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
झुलसी सी इक बस्ती में
आग के अंदर और तपिश है, आग के बाहर और ही आँच
शायद कोई दिवाना होगा बे-शक चाक-गिरेबाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ऐ मतवालो! नाक़ों वालो!!
चाक-गिरेबाँ इक दीवाना फिरता है हैराँ हैराँ
पत्थर से सर फोड़ मरेगा दीवाने को सब्र कहाँ
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मुद्दत के बाद
अब वो जुनूँ रहा है न वो मौसम-ए-बहार
बैठा हूँ अपना चाक-ए-गिरेबाँ सिए हुए