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ग़ज़ल
क्या फ़िक्र है ऐ 'शो'ला' पियो बादा-ए-रंगीं
डालो भी कहीं भाड़ में ये रंज-ओ-मेहन अब
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
तबस्सुम से क्या ख़ंदा-ए-गुल को निस्बत
कहीं मुँह भी है मुस्कुराने के क़ाबिल
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
बना रही है नसीम-ए-बहार मरहम-ए-ज़ख़्म
सुलझ रहे हैं रग-ए-गुल मिरे रफ़ू के लिए
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
की मैं ने आह-ए-गर्म जो फ़ुर्क़त की रात में
ग़ुल पड़ गया कि आग लगी काएनात में