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ग़ज़ल
बुलबुल हैं तेरे हम भी बाग़-ए-जहाँ के अंदर
ओ गुल से गाल वाले सुम्बुल से बाल वाले
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
जफ़ा-ओ-जौर-ए-गुल-चीं से चमन मातम-कदा सा है
फड़कते हैं क़फ़स की तरह आज़ादी में पर वाले
साइल देहलवी
ग़ज़ल
हम हैं टूटी हुई इक शाख़-ए-गुल-ए-ज़र्द मगर
हम को गुल-दान में रक्खेंगे ज़माने वाले
शहनाज़ परवीन सहर
शेर
नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ 'ज़ौक़'
उस ने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाकत वाले