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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
ज़िना-ज़ादे मिरी इज़्ज़त भी गुस्ताख़ाना करते हैं
कमीने शर्म भी अब मुझ से बे-शर्माना करते थे
जौन एलिया
ग़ज़ल
बाद ख़ूँ-रेज़ी के मुद्दत बे-हिना रंगीं रहा
हाथ उस का जो मिरे लोहू में गुस्ताख़ाना था
मीर तक़ी मीर
शेर
तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे
वही मक़्बूल होता है जो गुस्ताख़ाना आता है
अम्न लख़नवी
ग़ज़ल
मुझे उस अंजुमन में बार पा कर इस पे ख़दशा है
मिरा अंदाज़-ए-बेताबी न गुस्ताख़ाना हो जाए
माहिर-उल क़ादरी
कुल्लियात
बाद ख़ूँ-रेज़ी के मुद्दत बे-हिना रंगीं रहा
हाथ उस का जो मिरे लोहू में गुस्ताख़ाना था
मीर तक़ी मीर
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ग़ज़ल
तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे
वही मक़्बूल होता है जो गुस्ताख़ाना आता है
अम्न लख़नवी
ग़ज़ल
मोरिद-ए-इल्ज़ाम क्यों ठहरे भला दस्त-ए-करम
माँगने वाले तिरा लहजा ही गुस्ताख़ाना था
शफ़ाअतुल्लाह खां सहर
ग़ज़ल
रह गया बन कर जुनून-ए-इश्क़ शरह-ए-काएनात
एक वो लफ़्ज़-ए-अनल-हक़ जो कि गुस्ताख़ाना था