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ग़ज़ल
ख़ुदा रक्खे है कुछ दीवान-ए-‘साक़ी’ भी जज़ाक-अल्लाह
सलासत देखते जाओ रवानी देखते जाओ
अब्दुल ग़फ़ूर साक़ी
ग़ज़ल
लिया जाता न कैसे इम्तिहान-ए-ज़र्फ़ ऐ 'साक़ी'
नज़र हर एक बादा-ख़्वार ने साग़र पे रक्खी थी
अब्दुल हमीद साक़ी
ग़ज़ल
इस तरह हम ने खेला ग़म-ए-ज़िंदगी का खेल
जीता भी कुछ नहीं है तो हारा भी कुछ नहीं