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ग़ज़ल
अगर मैं हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो राएगाँ कर दे
मैं जिस वरक़ पे मिलूँ उस की धज्जियाँ कर दे
हुसैन ख़ां दानिश
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शेर
गो कि हम सफ़्हा-ए-हस्ती पे थे एक हर्फ़-ए-ग़लत
लेकिन उठ्ठे भी तो इक नक़्श बिठा कर उठे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
नज़्म
आख़िरी आदमी
चमकते हुए सब बुतों को मिटा दो
कि अब लौह-ए-दिल से हर इक नक़्श हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिट चुका है
फ़ख़्र-ए-आलम नोमानी
ग़ज़ल
नफ़रतें मिट जाएँगी हर्फ़-ए-ग़लत की तरह से
हाँ मगर हर्फ़-ए-ग़लत इक दास्ताँ बन जाएगा
अनीस सुलताना
नज़्म
इंतिज़ार
मिटते जाते हैं मिस्ल-ए-हर्फ़-ए-ग़लत आसमाँ के सफ़हे से
मैं इक दरमाँदा राह-रौ की तरह