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नज़्म
हिसाब-ए-जाँ!!
कहो!! मैं तुम्हें कौन सी रफ़ाक़त से ज़र्ब दूँ
कि मेरी रूह और बदन पर रुवाँ रुवाँ पूरे आ जाओ
अंजुम सलीमी
ग़ज़ल
देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं
मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
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ग़ज़ल
ख़ुद इश्क़ क़ुर्ब-ए-जिस्म भी है क़ुर्ब-ए-जाँ के साथ
हम दूर ही से उन को पुकार आए ये नहीं