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ग़ज़ल
ज़ीस्त आग़ाज़ से इत्माम-ए-सफ़र होने तक
इक मुअ'म्मा ही रही उम्र बसर होने तक
सूफ़ी ज़मज़म बिजनोरी
ग़ज़ल
लाख सर पटका करे दिल ज़ो'फ़-ए-हुज्जत के ख़िलाफ़
चल नहीं सकती कोई तदबीर क़िस्मत के ख़िलाफ़
बिशन दयाल शाद देहलवी
नज़्म
क़लम
भेजता है कभी पैग़ाम-ए-मोहब्बत तू ही
दिल-ए-मग़्मूम को है बाइ'स-ए-हुज्जत तू ही
मास्टर बासित बिस्वानी
ग़ज़ल
गर मुकर्रर अर्ज़ करते हैं तो कहते हैं वो शोख़
हम से लेते हो मियाँ तकरार-ए-हुज्जत ता-ब-कै