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ग़ज़ल
रोज़-ए-जज़ा उमीद है सब को सज़ा मिले
इक़दाम-ए-क़त्ल में हैं मिरे सब हसीं शरीक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद
शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
देखा गया न मुझ से मआनी का क़त्ल-ए-आम
चुप-चाप मैं ही लफ़्ज़ों के लश्कर से कट गया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
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ग़ज़ल
जलसा-ए-आम में दिक़्क़त नहीं होती उन को
जो समझते हैं इशारों में कलाम-ए-मख़्सूस
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
कब आप का दर जल्वा-गह-ए-आम नहीं है
कब शाम-ओ-सहर दौर में वाँ जाम नहीं है