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ग़ज़ल
इनायतुल्लाह ख़ान सोज़
ग़ज़ल
सोज़-ए-ग़म से जब बहुत जलता है दिल अपना 'जिगर'
रूह की मंज़िल में कुछ कुछ रौशनी आती तो है
जिगर बरेलवी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-आरास्ता क़ुदरत का अतिय्या है मगर
क्या मिरा इश्क़-ए-जिगर-सोज़ ख़ुदा-दाद नहीं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
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शेर
हुस्न-ए-आरास्ता क़ुदरत का अतिय्या है मगर
क्या मिरा इशक़-ए-जिगर-सोज़ ख़ुदा-दाद नहीं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
अब रुक नहीं सकती है 'मुनीर' आह-ए-जिगर-सोज़
दम घुटने लगा मुँह से कलेजा निकल आया
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
हाए उस अश्क-ए-जिगर-सोज़ की क़िस्मत 'फ़ारूक़'
जिस की क़िस्मत न हो पलकों पे फ़रोज़ाँ होना
बशीर फ़ारूक़
कुल्लियात
सोज़-ए-दिल-ओ-जिगर से जलता है तन-बदन सब
मैं क्या कोई हो खींचे ऐसे अज़ाब क्यूँकर